व्यवहार में विनम्रता होना कितना जरूरी है ? अपने व्यवहार में विनम्रता कैसे लाएं

व्यक्ति के ऊपर जितना भारी उत्तरदायित्व होता है , उसका मार्ग उतना ही कठिन होता है । उसके मार्ग में उतनी ही अधिक बाधाएं तथा उसे उतने ही अधिक व्यक्तियों के सहयोग की आवश्यकता होती है , जो अधिकारी सदैव अकड़कर बात करता है , व्यवहार में खुरखुरा होता है , वह अत्यन्त असफल होता है । उसको यही प्रमाण – पत्र दिया जाता है कि यह व्यक्ति भले ही योग्य हो , परन्तु सफल प्रशासक नहीं है , क्योंकि वह अपने साथियों को अपना सहयोगी बनाने में असमर्थ है । ऐसे योग्य अधिकारियों को ऐसे स्थान पर बैठा दिया जाता है जहाँ कम – से – कम लोगों से विशेषकर जनता से कम – से – कम सम्पर्क हो ।

श्रेष्ठ लोक व्यवहार 

आपने देखा होगा कि जब कोई व्यक्ति ऊँचाई की ओर चढ़ता है , तब वह अपना सिर आगे की ओर झुका लेता है । उस व्यक्ति को विशेष रूप से झुकना पड़ता है जिसकी पीठ पर बोझा होता है । ऊपर की ओर चढ़ते समय सिर झुक जाने की प्रक्रिया प्रायः अनायास होती है । कुछ लोग इसके पीछे गुरुत्वाकर्षण जैसे कारणों की स्थापना भी करते हैं , परन्तु हमें तो ऐसा लगता है कि ऊँचाइयों की ओर बढ़ने के लिए सिर झुका लेना श्रेष्ठ लोक व्यवहार का लक्षण है । उत्तरदायित्व का निर्वाह भी आँख झुकाकर विनम्र बनकर अधिक सरलता एवं सफलता के साथ किया जा सकता है । प्रकृति में भी हमें इसी प्रक्रिया एवं नियम के दर्शन होते हैं । फलों से लदे हुए वृक्षों की डालियाँ नीचे की ओर झुक जाती हैं । वृक्ष जितना अधिक घना और छायादार होता है , वह उतना ही पृथ्वी के तल के प्रति उन्मुख होता है । संस्कृत की यह सुभाषित सर्वथा सटीक एवं यथार्थ की द्योतिका है —

नमन्ति फलनो वृक्षाः नमन्ति गुणनो जनाः । 

शुष्क काप्ठानि मुर्खाश्च न नमन्ति कदाचन ।। 

अर्थ – फल वाले वृक्ष और गुणवान व्यक्ति झुक जाते हैं । सूखे काठ जैसे वृक्ष और मूर्ख जन कभी नहीं झुकते हैं । लोक व्यवहार में भी विनम्र व्यक्ति को सुशील , शीलवान आदि कहा जाता है । विनम्रता रहित व्यक्ति को लट्ठ गँवार , खुरखुरा आदि कह कर नकार दिया जाता है । 

विज्ञान भी इस नियम का समर्थन करता है–

 

नर की और नलनीर की , गति एकै कर जोइ । 

जेतो नीचो है चले , ते तो ऊँचो होय । 

———( कवि बिहारी लाल ) 

यदि आप लोग प्रशासकीय सेवाओं के लिए तैयारी कर रहे हैं । तो आपको इस चिन्तन से कभी विरत नहीं होना चाहिए कि आप प्रशासक का पद पाकर किस रास्ते से चलकर सफल प्रशासक बनेंगे । सचिवालय में मेज पर बैठकर काम करने की स्थिति में और जिलाधिकारी की कुर्सी पर बैठकर काम करने की स्थिति में वेतन की दृष्टि से कोई अन्तर नहीं होगा , परन्तु जब आप दोनों स्थितियों में प्राप्त मान – सम्मान के मध्य तुलना करेंगे , तो सिहर उठेंगे । याद रखिए व्यक्ति जीवन में जितना विनम्र होकर झुककर चलता है , वह उतना ही ऊँचा उठता है । वह चाहे पर्वतारोही कुली हो अथवा मन्त्री पद का प्रत्याशी कोई नेता हो । विनम्र नेता को जनता पद पर देखना चाहती है । जो अकड़ कर बात करता है , उसको जनता जमीन दिखाना या धूल चटाना चाहती है ।

 इस संदर्भ में मैं आपको श्री राम कथा की ओर ले जाना चाहता हूँ । भगवान श्री राम अनन्त शक्ति के साथ अनन्त शील के भी भण्डार या आश्रय थे । पृथ्वी का भार उतारने का संकल्प लेकर वह आए थे । अपने कर्तव्यपालन में वह सदैव विन्रम बने रहते हैं । उनकी विनम्रता उन्हें सर्वप्रिय एवं सर्वोपरि बना देती है । वह जिस व्यक्ति से जो कार्य कराना चाहते हैं , वह करा लेते हैं विशेषता यह रहती है कि वह व्यक्ति उस कार्य को स्वेच्छापूर्वक एवं स्वहित मानकर करता हुआ दिखाई देता है । कभी वह भाई भरत से कहते हैं – पिता की आज्ञा इस प्रकार थी , तुम जो कहो सो करूँ , कभी लक्ष्मण से कहते हैं- तुम धैर्य धारण करो । तुम जैसा कहते हो वैसा ही करूँगा , कभी वह वानरराज सुग्रीव से कहते हैं – सखा , तुमने ठीक ही नीति बताई है , परन्तु मेरा विचार ऐसा है , आदि । हमारा युवा वर्ग सामान्य जीवन हो अथवा प्रशासनिक उत्तरदायित्व का पद हो , सर्वत्र विनम्रता के नियम का पालन करने का संकल्प करें , तो हमारे समाज की छवि कितनी भिन्न हो जाए ? हमारे देश में एक – से – एक बड़े नेता उत्पन्न हुए हैं , परन्तु बापू की पदवी को केवल एक नेता प्राप्त कर सका था । कारण उसने अपने अहंकार को विगलित कर दिया था और विनम्रता को आत्मसात् कर लिया था । 

महात्मा गांधी प्रायः कहा करते थे कि जिनमें नम्रता नहीं है , वे विद्या का पूरा सदुपयोग नहीं कर सकते ।

 यह सच है कि सदैव नम्रता से काम नहीं चलता है , सीधी अँगुली से घी नहीं निकलता है , यह भी कहा जाता है कि दुकानदारी नरमी की और अफसरी गरमी की ठीक रहती है , परन्तु इन बातों के साथ यह भी कहा जाता है कि जब पंचामृत से काम चल जाए , तो विष क्यों दिया जाए- “ मोदक मारे ताहि माहुर न मारिए । ” 

दोनों कथन अपनी – अपनी जगह ठीक हैं । जीवन संचालन का महत्वपूर्ण सूत्र यह है कि ” हम न तो गुड़ की तरह मीठे हों , जिसे हर कोई आसानी से खा जाए और न नीम की तरह कडुए हों , जिसे हर कोई थूक दे । अथवा जिसके कारण व्यक्ति थू – थू करने लगे । ” मन्तव्य स्पष्ट है हम अन्य किसी व्यक्ति की नम्रता को उसकी दुर्बलता का लक्षण न समझ बैठे , न तो हमारी नम्रता हमारी दीनता की द्योतिका बन जाए और न हमारी उग्रता किसी छुटभैया द्वारा आतंक प्रदर्शन का अस्त्र हो ।

 नम्रता वास्तविक होनी चाहिए । अर्थात् वह विगलित अहंकार से उत्पन्न होनी चाहिए । ऐसी नम्रता निश्चित रूप से प्रभावशाली होती है । यह महानता का सोपान बनती है और समस्त श्रेष्ठ गुणों का दृढ़ स्तम्भ बन जाती है । एक महान् विचारक ने इस प्रकार की नम्रता की भर्त्सना स्पष्ट शब्दों में करते हुए यहाँ तक कह दिया है ” if A false modesty is the refinement of vanity . It is a lie .” अर्थात् दिखावटी नम्रता अहंकार का परिस्कृत रूप होती है । यह शुद्ध झूठ है । वास्तविक नम्रता का धनी व्यक्ति उस जलभरे बादल के समान होता है , जो भूमि की ओर आते – आते शीतल जल की वर्षा कर देता है । नम्रता की इसी विशेषता को लक्ष्य करके कहा जाता है कि ” नम्रता पत्थर को भी मोम बना देती है । “


 हम पुनः अपने उन युवक – युवतियों को नम्रता के प्रति जागरूक कर देना चाहते हैं , जो उच्च पदस्थ अधिकारी के पद को प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील हैं । पद का अहंकार व्यक्ति पर बहुत शीघ्र अधिकार कर लेता है , क्योंकि अधिकार सुख बहुत मादक होता है । साथ ही चाटुकार सहयोगी एवं स्वार्थी मित्र अधिकारी के विवेक को तमसाछन्न करने के हेतु बन जाते हैं । अतएव हम चाहते हैं कि आप इस यहूदी कहावत को एक पल के लिए भी विस्मृत न करें- ” He who takes his rank lightly raises his dignity immensely– जो अपने पद को हल्के ढंग से देखता है , वह अपनी प्रतिष्ठा में अत्यधिक वृद्धि कर लेता है । ” नम्रता एक जीवनव्यापी गुण है । हम जीवन के किसी भी क्षेत्र में हों , यदि विनम्रतापूर्वक चलेंगे , तो किसी की आँखों में नहीं खटकेंगे । ” बड़ों के प्रति नम्रता कर्त्तव्य है , समवयस्क के प्रति विनय की सूचक है , अनुजों के प्रति कुलीनता की द्योतक एवं अपने प्रति सुरक्षा कवच है । ” ( सर टी. मूर )

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