अन्य पिछड़े वर्गों की समस्याएँ | Problems of Other Backward Classes (OBC)

अन्य पिछड़े वर्गों की समस्याएँ | Problems of Other Backward Classes (OBC)

पिछले आर्टिकल्स में आपने समाज के दो वर्गों के बारे में जिन्हें भारत के राष्ट्रपति ने अनुसूचित जातियाँ व अनुसूचित जनजातियाँ कहा है, की जानकारी प्राप्त की है। इस आर्टिकल में हम अन्य पिछड़े वर्गों यानी स्त्रियों और बच्चों के बारे में जानकारी देंगे।

इस लेख का उद्देश्य यह है कि इस लेख को पढ़ने के बाद आप : पिछड़े वर्गों की समस्याओं (problems of backward classes) को समझेंगे; और स्त्रियों तथा बच्चों की समस्याओं (problems of women and children) के बारे में जानकारी प्राप्त कर सकेंगे।

अन्य पिछड़े वर्गों की समस्याएँ | Problems of Other Backward Classes (OBC)
अन्य पिछड़े वर्गों की समस्याएँ | Problems of Other Backward Classes (OBC) 

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बच्चों की समस्याएँ (Children’s problems)

एक तरह से बच्चा आदमी का पिता है। मनुष्य जीवन की सम्पूर्ण समस्याएँ यानी मानव विकास की समस्याएँ, बचपन से निहित होती हैं। बचपन का प्रारम्भिक विकास इस बात का निर्धारण करता है कि आज और आने वाले कल के राष्ट्र का निर्माण प्रारम्भिक अवस्था में होता है। भारतीय संविधान के कुछ निश्चित सुरक्षाएँ बच्चों को बचाए रखने एवं उनके विकास के लिए होती है।

दिन-प्रतिदिन के जीवन में आपने देखा होगा कि बच्चे स्कूल जाते हैं, गणवेश पहनते हैं और इसी प्रकार के जीवन को बिताते हैं। दूसरी ओर आपने यह भी देखा होगा कि बच्चे अर्द्ध-नग्न अवस्था में गलियों में कूड़ा-करकट इकट्ठा करते हुए मिलते हैं। उनके माता-पिता इन बच्चों के भोजन, कपड़ों और शिक्षा के बारे में कुछ नहीं सोचते। सीधा कारण यह है कि ये बच्चे उस परिवार से आते हैं, जो गरीबी की रेखा से नीचे हैं। इन बच्चों के लिए शिक्षा की अपेक्षा भोजन ज्यादा महत्वपूर्ण है। ये शिक्षा के बिना जीवित रह सकते हैं लेकिन भोजन के बिना जीवित नहीं रख सकते। अपने आप को बनाए रखने के लिए उन्हें बड़ी सख्त लड़ाई लड़नी पड़ती है, ऐसा करके उन्हें अपने परिवार को सहायता देनी पड़ती है।

हम निम्न भाग में इन बच्चों की समस्याओं के बारे में जानकारी देखते हैं:

(क) लड़कियों की समस्याएँ हमारे समाज में लड़कियों के साथ भेद- 

भावपूर्ण व्यवहार किया जाता है। एक लड़की होने के कारण उन्हें शिक्षा के अवसरों से वचित कर दिया जाता है। उनका स्कूल में दाखिला नहीं होता। स्कूल के बजाय उन्हें घर के कामकाज में लगा दिया जाता है अकसर गाँवों में ऐसा देखने को मिलता है। इन बच्चियों को स्कूल न भेजकर माँ के सहायक के रूप में काम करना पड़ता है। शादी के बाद एक गृहिणी के कार्य उन्हें करने पड़ते हैं, वह पति के साथ भी घर के सभी कामकाज करती है।

हमारे समाज के कई भागों में यह विश्वास है कि तारुण्य में प्रवेश करने से पहले लड़की का विवाह हो जाना चाहिए। इस विश्वास ने बाल विवाह को प्रोत्साहित किया है। बाल विवाह के कारण ये लड़कियाँ बहुत जल्दी माँ बन जाती हैं मातृत्व और मातृ से जुड़ी हुई भूमिकाएँ कई समस्याओं को पैदा कर देती हैं।

एक दूसरा विश्वास ग्रामीण भारत में और है कि स्त्रियों की शिक्षा विवाह निश्चित करने में जटिल समस्याएँ पैदा कर देती है। इस कारण माता-पिता अपनी लड़कियों का विवाह शीघ्र कर देते हैं। गरीब परिवारों की लड़कियों को घर में केवल काम ही नहीं करना पड़ता, उन्हें बाल श्रमिक की तरह पगार भी कमानी पड़ती है। जो भी हो इन विवाहित लड़कियों को आर्थिक दृष्टि से अपने मालिक के हाथों शरीरिक शोषण सहना पड़ता है।

समाज के गरीब परिवारों में बच्चियों को बेच भी दिया जाता है। इन परिवारों के लिए लड़कियाँ आय की स्रोत भी हैं। समृद्ध परिवार घरेलू कामकाज के लिए इन लड़कियों को खरीद लेते हैं और कुछ स्थितियों में उन्हें रखेल की तरह भी रख लेते हैं।

सामान्यतः बाल्यावस्था की अवधि प्रसन्नता से भरपूर होती है, ग्रामीण भारत में ये बच्चियाँ तिरस्कारित समझी जाती हैं। इनका शोषण और दमन होता है। कोई भी व्यक्ति इन बच्चियों के स्वास्थ्य को नहीं देखता, जब उसकी अवस्था गंभीर हो जाती है, तब उसे किसी चिकित्सिक या अस्पताल में ले जाया जाता है।

सच्चाई यह है कि हम भोजन, शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में एक लड़की को वंचितता और भेदभावपूर्ण स्थिति में देखते हैं।

(ख) गली के बच्चेः 

कुछ बच्चे जो गरीब परिवार के होते हैं, शहरों और कस्बों में काम- धन्धे के लिए आते हैं। शहरों में ये बच्चे बूट पॉलिश करते हैं, गेराज में मदद करते हैं, तथा अखबार बेचते हैं। उन्हें कचरा इकट्ठा करने वाला काम भी करना पड़ता है, जिसमें किसी पूंजी निवेश की आवश्यकता नहीं पड़ती। वे गंदी वस्तुओं को उठाने का काम भी करते हैं। इन बच्चों को अपने निर्वाह की समस्या का मुकाबला करना पड़ता है। अधिक किराया होने के कारण वे मकान भी किराये पर नहीं ले सकते। इस सम्पूर्ण त्रासदी का परिणाम यह होता है कि इन बच्चों को रात-दिन शहर की गलियों में रहना पड़ता है। इस कारण इन्हें गली के बच्चे या फटे-पुराने या सामान को उठाने वाला कहा जाता है। इनका निवास रात के समय में सार्वजनिक स्थानों जैसे कि रेलवे स्टेशन, बस स्टेण्ड, पार्क आदि होते हैं। एक अनुमान के अनुसार बैगंलोर, मुम्बई, कलकत्ता, दिल्ली, हैदराबाद, कानपुर और चिन्नई में बच्चे गलियों में ही घूमते हैं और वहीं निवास करते हैं।

गली के इन बच्चों के मार्गदर्शन और नियंत्रण के लिए कोई नहीं होता। वे कुछ भी करने के लिए स्वतन्त्र हैं। इसका परिणाम यह होता है कि उनमें से अधिकांश बच्चे बीड़ी सिगरेट, भांग, गाँजा व शराब का सेवन करते हैं। नशा पान के कारण उनका स्वास्थ्य व जीवन खराब हो जाता है, वे यौन का शिकार हो जाते हैं। गली के बच्चे शहर के अपराधियों के चंगुल में आ जाते हैं। वे जेबकतरी का काम होशियारी से कर लेते हैं और वस्तुओं को चुरा लेते हैं। जब सड़कों के इन बच्चों को अपराध करते हुए, पकड़ लिया जाता है तब उन्हें जेल भेज दिया जाता है और ये जेल में नामी-गिरामी गुण्डों की पकड़ में आ जाते हैं। इस तरह ये लड़के अपराधी बन जाते हैं।

ऊपर के विवरण से स्पष्ट है कि हमें सड़कों के बच्चों के बारे में निम्न जानकारी मिलती है:

(1) ये बच्चे भगोड़े होते हैं।

(2) ये बच्चे अनाथ या अपने परिवार से पृथक होते हैं।

(3) ये बच्चे गरीबी, अशिक्षा और कुपोषण के शिकार होते हैं।

(4) इन बच्चों का भौतिक और लैंगिक शोषण होता है।

(5) उनके काम करने की पद्धति ऐसी होती है कि ये असंगठित और बेमतलबी होते हैं।

(6) सामान्यतया वे अकुशल काम करते हैं।

(7) ये बच्चे सरकारी. जमीन पर कब्जा कर लेते हैं और इन्हें इस कब्जे से बार-बार हटा दिया जाता है।

(8) खराब संगति के कारण ये बच्चे शराब व नशाखोरी करने लगते हैं, जो इनके स्वास्थ्य और जीवन को बिगाड़ देता है।

(9) ये अपराधी हो जाते हैं, इस कारण इन्हें जेल भेज दिया जाता है।

(ग) बाल श्रमिकः 

आपने देखा होगा कि वे बच्चे जिन्हें स्कूल जाना चाहिए बहुत कम उम्र में काम-धन्धा करने लगते हैं। इनकी उम्र 5-14 वर्ष की अवधि होती है। ऐसे बच्चे गरीबी की रेखा से नीचे के परिवारों के होते हैं। इन परिवारों के पास अपने बच्चों के पोषण के लिए पर्याप्त आय के साधन नहीं होते, जिनसे वे भोजन व वस्त्र उपलब्ध करा सके। इन कारणों से माता-पिता उन्हें स्कूल नहीं भेजते। इन बच्चों को हम बाल श्रमिक कहते हैं।

ये बाल श्रमिक कई जगह काम करते हैं- होटलों, घरेलू नौकर की तरह, गलीचा उद्योग, रंगाई उद्योग, चूड़ी उद्योग, डबल रोटी उद्योग, बीड़ी उद्योग, पापड़ उद्योग, खान, पटाखों का उद्योग मोटर गेराज इत्यादि।

बाल श्रमिक होने के कई कारण हैं- इनमें गरीबी, अशिक्षा, परिवार में काम करने वालों का अभाव, शोषण, दमन, माता-पिता द्वारा अमानवीय व्यवहार, अधिक धन इकट्ठा करने की लालसा, माता-पिता की कम आय, माता-पिता का नियमित धंधा न होना, भूमि हीनता आदि है।

बाल श्रमिक को कई स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं से जुझना पड़ता है। इसका कारण यह है कि वे गंदी दशाओं में काम करते हैं। वे कई बीमारियों के शिकार होते हैं जैसे आस्थमा, तपेदिक, श्वास नली से जुड़ी हुई बीमारियाँ, आँख, कान व त्वचा की बीमारियाँ और यौन सम्बन्धी बीमारियाँ आदि। इन श्रमिकों को दुर्घटना एवं मौत का मुकाबला भी करना पड़ता है। इन श्रमिकों को शारीरिक रूप से प्रताड़ित भी किया जाता है। ये श्रमिक इस तरह के शोषण से बचना चाहे तब भी वे बच नहीं सकते। उनके साथ यौन सम्बन्धी दुर्व्यवहार भी किया जाता है यदि वे ऐसा नहीं करते हैं तो उन्हें अपने रोजगार से हाथ धोना पड़ता है।

मालिक के लिए श्रम मजदूर लाभदायक होते हैं। यह इसलिए कि वे शांतिपूर्वक अधिक घंटों तक प्रतिदिन काम करते हैं। इनको पगार भी कर्म कर दी जाती है। इन्हें बाल श्रमिक अधिनियम के अनुसार, दिहाड़ी भी नहीं दी जाती।

भारत में जनसंख्या का एक तिहाई भाग जो श्रमिकों का है 14 वर्ष से कम की उम्र में काम करते हैं। इनकी संख्या लगभग 31 करोड़ है। विश्व में सर्वाधिक बाल श्रमिक भारत में हैं। इस तरह के. श्रमिक हमारी जनसंख्या में 5.2 हैं। गाँवों में इनकी संख्या 8.64 है और शहरों में 11.36 है।

बाल श्रमिक अधिनियम, 1986 के अनुसार जो बच्चे 14 वर्ष से नीचे हैं बाल श्रमिक कहलाते हैं। इन्हें नाममात्र की दिहाड़ी मिलती है। यह अधिनियम उन श्रमिकों को जो इस श्रेणी में आते हैं रेल के परिसर में काम नहीं करने देते। उनका यह निषेध बीड़ी बनाने और गलीचा बनाने, सीमेन्ट उत्पादन, जुलाही कार्य, रंग-रोगन के कारखाने, पटाखे, साबुन के कारखाने, जूते बनाने और भवन निर्माण में लागू होता है। इसी अधिनियम के अनुसार, एक बाल श्रमिक को अधिकतम 6 घंटे तक काम करना निश्चित किया गया है, इसमें भी उसे आधे घंटे का अवकाश दिया जाता है। इस अधिनियम के अनुसार, बाल श्रमिक को शाम 7 बजे से सुबह 8 बजे तक काम करने की मनाही है। इसके अनुसार, सप्ताह में एक दिन अवकाश का होता है। यह जरूरी है कि रोजगार का रजिस्टर व बच्चे की उम्र का प्रमाण-पत्र कानूनी रूप से अनवार्य है। इस अधिनियम का पालन न करने पर जुर्माना और जेल भी हो सकती है। जेल दो माह या एक साल तक की एवं जुर्माना 10,000 से 20,000 तक हो सकता है। अगर यह अपराध दूसरी बार किया जाय तो जेल 6 माह से 2 साल तक की हो सकती है।

महिलाओं की समस्याएँ (women’s problems)

आपके परिवार में कई नातेदार जैसे कि माँ, बहिन और दादी माँ होंगी। विवाह के बाद आपके अन्य नातेदार भी होंगे जैसे कि आपकी पत्नी, पुत्री। इन नातेदारों का आधार लिंग होता है। प्रत्येक समाज में स्त्रियाँ जनसंख्या का लगभग आधा भाग होती हैं। हमारे समाज में पुरुष-स्त्री का अनुपात 1991 की जनगणना के अनुसार 929 है। इसका आशय है लिंग का अनुपात संतुलित नहीं है। यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है कि स्त्रियों को पुरुषों के बराबर समानता नहीं मिलती, इनको इनके अधिकारों से वंचित रखा जाता है।

स्त्रियाँ भारतीय परिवार और संस्कृति की रक्षा करती हैं। परिवार की पहली शिक्षा माँ है। हमारे समाज में इन्हें लक्ष्मी की तरह माना जाता है और लक्ष्मी धन की देवी है। यह होते हुए भी व्यवहार में हम स्त्रियों को धन का उत्तराधिकार नहीं देते और न ही इन्हें किसी प्रकार की सम्पत्ति दी जाती है।

यह भी कहा जाता है जहाँ नारी की पूजा होती है, वहाँ देवताओं का निवास होता है। व्यावहारिक तौर पर देखा जाए तो स्त्रियाँ यातना और हिंसा की शिकार होती हैं।

निम्न भागों में हम स्त्रियों की समस्याओं का विश्लेषण कर सकते हैं:

(क) लैंगिक भेदभाव : 

लिंग एक प्राकृतिक वस्तु है। परिवार की निरन्तरता के लिए वंशक्रम और उत्तराधिकार के लिए पुरुष एवं स्त्री दोनों लिंगों की महत्ता है। लेकिन यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमारे समाज में लिंग को लेकर भेदभाव है। हमारे देश में कुछ आदिवासी समूह को छोड़कर पितृसत्तात्मक परिवार हैं। पितृसत्तात्मक समाज में वंशक्रम, गोत्र, उत्तराधिकार पित्तृवंशीय होते हैं। इस तरह के परिवार में पुत्र परिवार को लेकर एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक चलता है लेकिन जब एक आदमी विधुर बन जाता है तब उसे कुछ भी नहीं खोना पड़ता।

(ख) घरेलू हिंसाः 

जब एक आदमी और एक स्त्री पति व पत्नी की तरह बच्चों का प्रजनन करने के लिए एक हो जाते हैं, तब वे एक परिवार की नींव डालते हैं। यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है कि बहुसंख्यक स्त्रियों को घरेलू हिंसा का मुकाबला करना पड़ता है। घरेलू हिंसा शोषण, मारपीट, जहर देना, डूबो देना आदि में देखने को मिलती है। घरेलू हिंसा केवल ग्रामीण क्षेत्र में ही नहीं, यह शहरों में भी व्याप्त है। यह केवल अनुसूचित जातियों, जनजातियों, और अन्य पिछड़े वर्गों में ही देखने को नहीं मिलती अपितु इसका प्रचलन शहरों एवं उच्च जातियों में भी होता है। इस भाँति घरेलू हिंसा जाति, धर्म और क्षेत्र से ऊपर है। मानव विकास रिपोर्ट, 1995 के अनुसार विवाहित स्त्रियों में से दो-तिहाई को घरेलू हिंसा का सामना करना पड़ता है। यूनीसेफ की रिपोर्ट 2002 के अनुसार घरेलू हिंसा और भी ज्यादा है। भारत में घरेलू हिंसा में 1989 से 1999 तक 2.78 प्रतिशत वृद्धि हुई है।

हमारे समाज में हमेशा से घरेलू हिंसा रही है। हाल में घरेलू हिंसा में वृद्धि का कारण उपभोक्ता वस्तुओं की खपत है और उससे घरेलू हिंसा बढ़ जाती है। इस हिंसा से स्त्रियों को बचाने के लिए हमें प्रभावशाली अधिनियम बनाने चाहिए। हमारी सरकार ने घरेलू हिंसा से बचने के लिए कानून बनाए हैं। लेकिन महिला संगठन बिल का विरोध कर रहे हैं।

(ग) दहेजः 

जब विवाह की चर्चा होती है, तब आपने अपने घर या पड़ोस में दहेज के बारे में सुना होगा। दहेज वह नकद धन या वस्तु है, जो लड़की का पिता वर पक्ष को देता है। पिछले दिनों में दहेज उच्च जातियों में प्रचलित था। आजकल दहेज की मांग समाज में सभी ओर बढ़ गयी है। आधुनिक शिक्षा ने दहेज की दर को बहुत अधिक बढा दिया है। लड़का जितना अधिक शिक्षित होगा उतनी ही अधिक दहेज की मांग होगी। दहेज की मांग में स्त्री का भाग लेना बहुत अधिक दुर्भाग्यपूर्ण है। अपने आप दहेज देना बुरा नहीं माना जाता परन्तु जबरदस्ती से दहेज लेना गलत है। प्रत्येक परिवार का लड़की की शादी में दहेज देना परम्परागत है। हर एक परिवार चाहता है कि लड़की विवाह के बाद लड़के के परिवार में प्रसन्नतापूर्वक रहे। लेकिन जब सामने वाले के बजट पर दहेज की रकम बढ़ जाती है तो लड़की का पिता असहाय हो जाता है। इस तरह की गैर-मानवीय व्यवहार शादी के बाद दहेज को लेकर होता है।

हमारे देश में 4,215 मृत्यु दहेज के कारण 1989 में हुई। सन् 1999 में इन दहेज हत्याओं की संख्या बढ़कर 6,699 हो गयी। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि सात हजार विवाहित स्त्रियाँ प्रतिवर्ष दहेज के कारण मृत्यु को प्राप्त होती हैं।

इस तरह के गैर कानूनी और अमानवीय व्यवहार हमारी सरकार जानती है कि समाज में बराबर चलते रहते हैं। सरकार ने दहेज निषेध अधिनियम 1976 में बनाया था। इस अधिनियम के अनुसार, दहेज देना और लेना दोनों ही दण्डात्मक अपराध माने गये हैं। जब अधिनियम लागू हो गया तब कुछ लोग जो दहेज लेने व देनेवाले थे उन्हें दण्ड दिया गया। लेकिन इससे दहेज समाप्त नहीं हुआ। हाल के वर्षों में धन की लालसा के कारण तथा धन के उपभोग के लिए दहेज की मांग बढ़ रही है, यह प्रथा अधिक जटिल और शोषण युक्त हो गयी है।

(घ) शोषणः

गरीबी और सामाजिक-आर्थिक शोषण के कारण स्त्रियाँ कठिनाई में आ गई हैं। उत्तराधिकार, सम्पत्ति के आधिपत्य तथा वस्तुओं की बनावट को लेकर स्त्रियों का शोषण होने लगा है। स्त्रियाँ अपने पति की सम्पत्ति को बेच नहीं सकती। जब वे विधवा हो जाती हैं तब पति के भाई उसे केवल भोजन देते हैं। जब पति की सम्पत्ति में विधवाएँ हिस्सा मांगती हैं तब उन्हें भला-बुरा कहा जाता है। कहीं-कहीं पर उसे पीटा भी जाता है और मृत्यु के घाट उतार दिया जाता है।

जब स्त्रियाँ अनुसूचित जनजाति, अनुसूचित जातियों और अन्य पिछड़े वर्गों की होती हैं तब दिहाड़ी देने में उनके साथ भेदभाव किया जाता है। एक ही प्रकार के काम की दिहाड़ी के लिए उन्हें अलग-अलग दिहाड़ी दी जाती है।

(ङ) महिलाओं की कानून के प्रति जागरुकताः 

हमारी सरकार घरेलू हिंसा के बारे में जागरूक थी। लैंगिक भेदभाव और स्त्रियों के शोषण के लिए भी वह जानकार है। ब्रिटिश शासन काल में 1829 में सती प्रथा निषेध अधिनियम बना था। गुलाम प्रथा 1849 में वर्जित हो गयी थी। बाल विवाह पर 1929 में निषेध हो गया था। विधवा पुनर्विवाह को 1856 में प्रारम्भ कर दिया था।

स्वतन्त्रता के बाद विशेष विवाह अधिनियम, 1954, हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955, हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956, भ्रूण हत्या निषेध अधिनियम, 1971 और दहेज निरोधक कानून, 1976, महिलाओं की स्थिति को सुधारने के लिए चालू किया गया। हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 हिन्दू, सिख, बौद्ध और जैन पर लागू होता है। यह अधिनियम अन्तर्जातीय विवाह को भी स्वीकृति देता है। यह स्त्री को भी विवाह विच्छेद की समानता देता है।

हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 के अनुसार, लड़कियों को भी उत्तराधिकार का अधिकार देना है। 1976 में बने दहेज निरोधक कानून के अनुसार, जुर्माना और दण्ड दोनों दिये जाते हैं। 18 वर्ष से पूर्व लड़की का विवाह दण्डनीय है। सर्वोच्च न्यायालय ने काम के स्थान पर लैंगिक परेशानी को बंद कर दिया है।

हमारे देश में अधिकांश स्त्रियों को इस बात का ज्ञान नहीं है कि इन अधिनियमों का क्या उद्देश्य है। ऐसी स्त्रियाँ कुछ अधिनियमों को जानती हैं लेकिन उनकी पहुँच केवल उत्तराधिकार तक ही है।

अन्य पिछड़े वर्गों की समस्याएँ (Problems of Other Backward Classes)

क्या आप यह जानते हैं कि अन्य पिछड़े वर्ग कौन से हैं? हमारी जाति व्यवस्था में सभी जातियाँ एक समान नहीं हैं। हमारे यहाँ कई जातियाँ हैं जो कि जातियों के मध्य में आती हैं अर्थात् वे उच्च जातियों व निम्न जातियों के बीच में आती हैं। कई जातियों के परम्परागत व्यवसाय होते हैं। वे उच्च जातियों को अपनी सेवाएँ देते थे। इन्हें जजमानी व्यवस्था कहते हैं। इन जातियों को कृषक जातियाँ, कारीगर इत्यादि कहते हैं। वे जातियाँ जिनकी स्थिति उच्च जातियों से नीची थी वे निम्न जातियों से ऊपर थी, उन्हें अन्य पिछड़ी जातियाँ कहते हैं। इस तरह की परिभाषा मण्डल कमीशन की रिपोर्ट ने दी। अन्य पिछड़ी जातियों की परिभाषा में कहना होगा कि ये जातियाँ न तो उच्च हैं और न अस्पृश्य जातियाँ हैं। अन्य पिछड़ी जातियाँ इस तरह निम्न जातियों से ऊपर हैं।

मण्डल कमीशन से पहले केवल अनुसूचित जातियों और जनजातियों को केन्द्र सरकार 22.5 प्रतिशत का आरक्षण देती थी। 27 प्रतिशत आरक्षण अन्य पिछड़े वर्गों के लिए केन्द्र सरकार ने मण्डल कमीशन की सिफारिश पर निश्चित किया था। बी. पी. मण्डल कमीशन का गठन 1979 में किया था। इस कमीशन का उद्देश्य अन्य पिछड़े वर्गों की पहचान करना था। इसने अपनी रिपोर्ट 1980 में प्रस्तुत की। अन्य पिछड़े वर्गों के लिए इस रिपोर्ट ने 27 प्रतिशत आरक्षण की सिफारिश की। इन वर्गों की पहचान से पता चलता है कि देश में इस वर्ग की 3743 जातियाँ हैं।

मण्डल आयोग की रिपोर्ट को 1993 में लागू किया गया। अन्य पिछड़ा बर्ग वस्तुतः एक ‘क्रीमी लेयर’ है।

1999 में वाजपेई सरकार ने अन्य पिछड़े वर्गों की जातियों में 127 जातियों को और जोड़ दिया। इस तरह अब इस वर्ग की जातियों की संख्या 3,920 हो गयी। परिणाम यह हुआ कि अन्य पिछड़े वर्ग तीन श्रेणियों में आ गयेः (1) बहुत अधिक पिछड़े हुए वर्ग (2) मध्यम पिछड़े वर्ग, और (3) पिछड़े वर्ग।

अन्य पिछड़ों वर्गों की समस्याओं को हम इस तरह पहचान सकते हैं:

(1) अन्तःक्रिया का अभावः 

गाँव में अन्य पिछड़ी जाति के लोग पृथक मोहल्ले में रहते हैं। ऊँची जातियों के सम्बन्ध इनके साथ नहीं रहते। उच्च जातियों की महिलाओं और बच्चों के सम्बन्ध इनसे नहीं होते। इसलिए अन्य पिछड़े वर्ग की नयी पीढ़ी बुरा मानती है क्योंकि वे आज भी आर्थिक एवं शैक्षणिक दृष्टि से सक्षम है। इसका परिणाम यह होता है कि प्रगतिशील जातियों व निम्न जातियों में संघर्ष हो जाता है।

(2) उच्च जातियों पर निर्भरता: 

यह सही है कि शिक्षा और आर्थिक क्षेत्र में जो पिछड़े वर्ग उन्नत हैं वे ऊँची जातियों पर निर्भर नहीं रहते लेकिन निम्न स्थिति के पिछड़े वर्ग जो गाँव में जीवन यापन करते हैं, वे ऊँची जातियों पर निर्भर रहते हैं। अन्य पिछड़े वर्गों में कुछ ऐसी जातियाँ हैं, जो आज भी जजमानी व्यवस्था पर अपनी अर्थव्यवस्था को चलाते हैं।

(3) बटाईयदारी की समस्याः 

यह सही है कि अन्य पिछड़े वर्गों के परिशिष्ट-I के किसान सीमान्त व लघु कृषक हैं। उनके पास कृषि करने के लिए पर्याप्त जमीन नहीं हैं। वे बंटाई करने के लिए उच्च जातियों से जमीन लेते हैं। वे खेती-बाड़ी का काम अपने परिवार के लोगों से करते हैं। ऐसा करने के लिए उन्हें प्रत्येक वर्ष अपनी काश्तकारी बदलनी पड़ती है। प्रगतिशील और अन्य पिछड़े वर्गों के बीच में संघर्ष चलता रहता है।

(4) ऋणग्रस्तताः 

इसमें कोई संदेह नहीं है कि दूसरी श्रेणी के अन्य पिछड़े वर्ग अच्छी स्थिति में हैं लेकिन अन्य पिछड़े वर्ग जो परिशिष्ट-1 में हैं, गरीब हैं। वे अपने परिवार का भरण-पोषण दिहाड़ी व थोड़ी बहुत जमीन जो उनके पास है, उससे करते हैं। यह स्वाभाविक है कि वे ऐसी स्थिति में नहीं हैं कि अपनी आय से अपना भरण-पोषण कर सकें। इसके परिणामस्वरूप उन्हें भूस्वामियों और साहूकारों से ऋण लेना पड़ता है। यह ऋण शादी, त्यौहार, मृत्यु और कर्मकाण्ड के लिए होता है। इस तरह के कर्ज में उन्हें उच्च ब्याज देना पड़ता है और जब वह ब्याज चुका नहीं पाता तब उसे बंधुआ मजदूर बनना पड़ता है।

(5) स्वास्थ्य और पोषणः 

अन्य पिछड़े वर्गों की जातियाँ परिशिष्ट-1 की गरीब होती है। इनके स्वास्थ की दशाएँ खराब होती हैं। इनके मकान कच्चे होते हैं। इन मकानों में शौचालय, पेशाबघर, स्नानघर, नाली और खिड़की नहीं होती है। इसी मकान में वे गाय, भैंस और बकरा बकरी के साथ रहते हैं। गाँव की गली में ही वे शौच कर लेते हैं। अपने मकान के बाहर ही वे बर्तन साफ कर लेते हैं। न तो उनके कुएँ साफ होते हैं और न ही हेण्डपम्प । इस तरह का अस्वास्थ्यकारी पर्यावरण उनके स्वास्थ्य को खराब कर देता है। क्योंकि वे आर्थिक दृष्टि से अच्छे नहीं हो सकते इसलिए वे अपने शरीर का पोषण नहीं कर सकते। कई लोग गरीबी की रेखा के नीचे रहते हैं।

आपने क्या सीखा

अन्य पिछड़े वर्गों का जाति व्यवस्था में मध्यम स्थान है। ये वर्ग मुख्य रूप से काश्तकार थे और मध्यम जातियों पर निर्भर थे। लेकिन आज ये वर्ग शक्तिशाली हो रहे हैं। परिशिष्ट-1 में सम्मलित किये गये अन्य पिछड़े वर्ग आर्थिक दृष्टि से कम विकसित हैं। इसके परिणामस्वरूप अन्य पिछड़े वर्ग परिशिष्ट-II के किसानों को लाभ हुआ है।

स्त्रियाँ हमारे समाज की जनसंख्या का आधा भाग हैं। इसके होते हुए भी वे पुरुष पर निर्भर हैं। परिणम यह है कि वे अपने अधिकारों व स्वतन्त्रता से वंचित हैं। स्त्रियों के साथ भेदभाव किया जाता है। घर में उनके साथ मारपीट की जाती है। दहेज के कारण उनकी हत्या हो जाती है और उनका शोषण होता है।

बच्चे समाज की रीढ़ हैं तथा बाल्यावस्था प्रसन्नता का अवसर देता है। लेकिन गरीबी में सड़क के बच्चों और श्रमिकों को जीवित रहने का ही अवसर दिया है। वे स्कूल नहीं जाते हैं और जीवित रहने के लिए काम करते हैं।

इस लेख से बने प्रश्न का उत्तर दीजिये

(1) अन्य पिछड़े वर्ग किसे कहते हैं? परिशिष्ट-I और II पर 200 शब्द लिखिए।

(2) हमारे समाज में लैंगिक भेदभाव के कोई पाँच प्रकारों पर लेख लिखिए।

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