अल्पसंख्यक (Minority) किसे कहते हैं? भारत में अल्पसंख्यकों की स्थिति/समस्याएं (Situation/Problems in India)

प्रश्न; भारत में अल्पसंख्यकों की स्थिति और समस्याओं का विवेचना कीजिए। 

अथवा” भारत में अल्पसंख्यकों पर एक निबंध लिखिए। 

अथवा” भारत में अल्पसंख्यक से आप क्या समझते हैं? विस्तृत लेख लिखिए। 

अथवा” अल्पसंख्यक को परिभाषित कीजिए। भारत में विभिन्न अल्पसंख्यक समुदायों का संक्षेप में वर्णन कीजिए। 

अल्पसंख्यक किसे कहते हैं? भारत में अल्पसंख्यकों की स्थिति/समस्याएं

उत्तर–

अल्पसंख्यक किसे कहते हैं? (alpsankhyak ka arth)

बोलचाल
की भाषा में “अल्पसंख्यक” शब्द से तात्पर्य ऐसे समूह से है जिसकी जनसंख्या
संपूर्ण जनसंख्या के आधी से भी कम हो और जो अन्यों से भिन्न हो, तथा जो
विशेष रूप से जाति, धर्म, परंपराओं तथा संस्कृति, भाषा आदि की दृष्टि से
प्रधान वर्ग रहा हो। 

आक्सफोर्ड शब्दकोश में,” अल्पसंख्यक,”
को एक छोटी संख्या या भाग के रूप में परिभाषित किया गया है; एक संख्या या
भाग जो संपूर्ण के आधे से भी कम को व्यथित करता हो; लोगों का अपेक्षाकृत
छोटा समूह जो जाति, धर्म, भाषा या राजनीतिक संदर्भ की दृष्टि से दूसरों से
भिन्न हो।”

1946 में संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग द्वारा
अल्पसंख्यक वर्गों के अधिकारों के संरक्षण पर एक विशेष उप-समिति नियुक्त की
गई थी जिसने “अल्पसंख्यक” को जनसंख्या के उन गैर प्रभावी समूहों के रूप
में परिभाषित किया था जो अपनी उन स्थिर जातीय, धार्मिक तथा भाषायी परंपराओं
या विशिष्टताओं को बनाए रखना चाहते हैं जो शेष जनसंख्या की जातीय, धार्मिक
तथा भाषायी परंपराओं से पूर्णत: भिन्न हैं।”

भारत में राष्ट्रीय
स्तर पर धार्मिक अल्पसंख्यकों के संबंध में वे सभी समुदाय जो हिन्दू धर्म
के अलावा किसी अन्य धर्म को मानते हैं, उन्हें “अल्पसंख्यक” माना जाता है
क्योंकि देश की 80 प्रतिशत से ज्यादा आबादी हिन्दू धर्म को मानती है।
राष्ट्रीय स्तर पर मुस्लिम समुदाय सबसे बड़ा ‘अल्पसंख्यक समुदाय’ है। अन्य
अल्पसंख्यक समुदाय संख्या की दृष्टि से काफी कम हैं। मुस्लिम समुदाय के बाद
ईसाई समुदाय (2.34 प्रतिशत) का स्थान हैं और उसके बाद सिख समुदाय (1.9
प्रतिशत) का स्थान आता है। जबकि अन्य सभी धार्मिक समूह इनसे भी छोटे हैं ।
भाषायी अल्पसंख्यकों के संबंध में राष्ट्रीय स्तर पर कोई बहुसंख्यक समुदाय
नहीं है तथा अल्पसंख्यक वर्ग की स्थिति मूलत : राज्य/संघ राज्य क्षेत्र
स्तर पर निर्धारित की जानी चाहिए। राज्य/संघ राज्य क्षेत्र स्तर पर -जोकि
हमारे जैसे संघीय ढांचे में अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं जम्मू तथा कश्मीर राज्य
तथा लक्षद्वीप संघ राज्य क्षेत्र में मुस्लिम समुदाय बहुसंख्यक समुदाय है।
मेघालय, मिजोरम तथा नागालैंड राज्यों में ईसाई बहुसंख्यक समुदाय है। पंजाब
में सिख समुदाय बहुसंख्यक है। अल्पसंख्यक वर्गों में कोई अन्य धार्मिक
समुदाय किसी अन्य राज्य/संघ राज्य क्षेत्र में बहुसंख्यक नहीं है। 

राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम, 1992 के अनुसार,
अधिनियम के प्रयोजनार्थ अल्पसंख्यक से अभिप्रेत केन्द्रीय सरकार द्वारा इस
प्रयोजन से अधिसूचित समुदाय से है– धारा 2 (7) इस उपबंध के तहत कार्य
करते हुए केन्द्रीय सरकार ने 23-10-1993 को यह अधिसूचित किया कि इस अधिनियम
के प्रयोजनार्थ मुस्लिम, ईसाई, सिख, बौद्ध तथा पारसी समुदायों को
“अल्पसंख्यक वर्ग” के रूप में माना जाएगा।

भारतीय संविधान में
अल्पसंख्यक शब्द का प्रयोग तो है लेकिन इसको स्पष्ट रूप से परिभाषित नही
किया गया हैं। जहाँ तक धर्मों का प्रश्न है भारत में इस्लाम, ईसाई, सिक्ख,
बौद्ध, जैन तथा जनजातीय धर्मों को अल्पसंख्यकों की श्रेणी में रखा गया हैं।
मुसलमान केवल एक हिन्दू समुदाय की तुलना में ही अल्पसंख्यक हैं और शेष
पांच समुदायों के लिए बहुसंख्यक हैं। जहाँ तक सुविधाओं का प्रश्न हैं,
अल्पसंख्यकों के नाम पर मुसलमान और ईसाई ही विशेष लाभ उठा रहे हैं। मुसलमान
आर्थिक दृष्टि से पिछड़े हुए हैं। ईसाई समुदाय विशेष रूप से केरल और उत्तर
के पर्वतीय राज्यों में बसे हुए हैं। 

भाषायी आधार पर अल्पसंख्यक की
बात करें तो प्रान्तीय भाषा को छोड़कर अन्य भाषा-भाषी उस प्रान्त विशेष के
लिए अल्पसंख्यक कहलायेंगे। जैसे कर्नाटक में कन्नड़भाषी बहुलता से हैं,
वहाँ हिन्दी भाषी अल्पसंख्यक कहलायेंगे। भारतीय समाज के दृष्टिकोण से जहाँ
पर हिन्दी राज्य भाषा हैं, वहाँ अन्य भाषा-भाषी अल्पसंख्यक कहलायेंगे। 

इस
प्रकार हम देखे को अल्पसंख्यकों की कोई एक स्पष्ट परिभाषा नही दी गई हैं।
इन्हें प्रान्त और देश की जनसंख्या के संदर्भ में ही देखा जाता हैं।
सामान्यतः अल्पसंख्यक समूह वे हैं, जो बहुसंख्यक की तुलना में धर्म, भाषा
आदि के आधार पर कम संख्या में हैं। यहाँ हम केवल धार्मिक आधार पर ही
अल्पसंख्यकों के संदर्भ में अध्ययन करेंगे। 

भारत में अल्पसंख्यकों की स्थिति और समस्याएं (alpsankhyak ko ki samasya)

भारत में मुस्लिम अल्पसंख्यकों की स्थिति और समस्याएँ 

भारत
में मुस्लिम अल्पसंख्यकों की जनसंख्या अन्य धार्मिक अल्पसंख्यकों की तुलना
में कहीं अधिक हैं। मुसलमान भारतीय समाज के मूल निवासी है। भारत में
मुसलमानों का आगमन महमूद गजनी के भारत प्रवेश से माना जाता हैं। आक्रमणकारी
के रूप में भारत-प्रवेश कर मुगलों ने काफी लंबे अर्से तक भारत पर शासन
किया, अपनी संस्कृति तथा धर्म को श्रेष्ठता प्रदान करते हुए हिन्दु
संस्कृति को न तो आत्मसात ही कर सके और न उससे अनुकूलन ही। इतना ही नहीं,
ब्रिटिश शासनकाल मे भी विभाजन की नीति हिन्दू-मुस्लिम संप्रदायों में
एकीकरण न कर सकी। 

भारत में मुस्लिम समुदाय सबसे महत्वपूर्ण
अल्पसंख्यक वर्ग हैं। भारत में जैसे-जैसे मुस्लिम अल्पसंख्यकों को विभिन्न
प्रकार के संरक्षण देने तथा उन्हें राष्ट्र की मुख्य धारा से जोड़ने से
प्रयत्न किये गये, किसी-न-किसी कारण मुस्लिम अल्पसंख्यक समुदाय में ऐसी
समस्याएं बढ़ती गयी जिनका आधार वास्तविक होने की जगह राजनीतिक अधिक हैं।
संक्षेप में, इन समस्याओं की प्रकृति को निम्नलिखित बिन्दुओं द्वारा समझा
जा सकता हैं–

1. मनोवैज्ञानिक समस्याएं 

संविधान के
अंतर्गत अल्पसंख्यकों को विशेष अधिकार और सुविधाएं प्रदान की गई है।
धार्मिक आधार पर उनसे कोई भेदभाव नही किया जा सकता। पर सामान्य मुसलमान
मानसिक दृष्टि से अपने को कुछ असुरक्षित महसूस करता हैं। 

2. शैक्षणिक समस्याएं 

मुसलमानों
की एक प्रमुख समस्या भारत के दूसरे सभी धार्मिक समुदायों की तुलना में
शैक्षणिक पिछड़ापन है। यह सच है कि देश के संविधान के अनुसार सभी समुदायों
को शिक्षा ग्रहण करने के व्यावहारिक अधिकार मिले हुए हैं, लेकिन मुस्लिम
समुदाय की परम्पराएं स्वयं आधुनिक शिक्षा के पक्ष में नहीं हैं। शिक्षा की
कमी के कारण राजकीय नौकरियों में जब उनका सहभाग कम रह जाता हैं तो उनमें
असंतोष की भावना बढ़ने लगते हैं। 

3. आर्थिक समस्याएं 

किसी-न-किसी
रूप में यह समस्या शैक्षणिक पिछड़ापन से संबंधित हैं। अशिक्षा और
रूढ़िवादिता मुसलमानों को आर्थिक विकास के नये क्षेत्रों में प्रवेश करने
के अवसर नही देता, अतः वे प्रायः परंपरागत व्यवसायों को ही अपनाते हैं।
मजदूरी करना, पंचर साडना, कारीगरी इत्यादि के कुछ गिने-चुने कार्यों के
द्वारा जीविकोपार्जन करना, अधिकांश मुसलमानों का काम है। वे सरकारी
नौकरियों में तथा उद्योगिक व्यवसायों में नहीं आ पाते हैं। 

4. साम्प्रदायिक तनाव 

इस
समस्या का संबंध अपनी एक अलग पहचना बनाए रखने के उन्माद और असुरक्षा की
ग्रन्थि से संबंधित हैं। हमारे देश में स्वतंत्रता से पहले और बाद में
साम्प्रदायिक दंगे उन क्षेत्रों में सबसे अधिक हुए, जिनमें दूसरे क्षेत्रों
की तुलना में मुस्लिम जनसंख्या अधिक हैं। इन तनावों का कोई ठोस कारण न
होने के बाद भी साधारणतया इनका उद्देश्य अपनी शक्ति का प्रदर्शन करना होता
हैं। मुसलमानों का शिक्षित वर्ग स्वयं ऐसे तनावों का विरोधी हैं, लेकिन
सामान्य लोग इसे बहुसंख्यक समुदाय द्वारा जनित मानते हैं। 

5. सांस्कृतिक भिन्नता

मुसलमानों
के रीति-रिवाज, प्रथाएं और परंपराएं हिन्दुओं से बहुत पृथक हैं। धार्मिक
मान्यताएं और पूजा-पद्धति की भिन्नता बहुत महत्व नहीं रखती। पर मुसलमान
अपने रीति-रिवाजों को भी एकदम पृथक रखने का प्रयत्न करते हैं। 

6. राजनैतिक समस्याएं 

हालांकि
मुस्लिम लीग के अतिरिक्त अन्य कई मुस्लिम राजनैतिक संगठन भारत में
विद्यमान हैं, परन्तु मुसलमान राजनैतिक दृष्टि से दिशाहीन प्रतीत होता हैं।
मुस्लिम लीग भारतवासियों के लिए राष्ट्रघातक नाम बन गया हैं क्योंकि इसका
संबंध पाकिस्तान-निर्माण से हैं। मुसलमान केवल उन्हीं क्षेत्रों में लीग
में शामिल होता हैं जहाँ वह संख्या बल पर अथवा राजनैतिक दृष्टि से पहले से
ही शक्तिशाली होती हैं।

भारत में ईसाई अल्पसंख्यकों की स्थिति अथवा समस्याएं 

मुसलमानों
के बाद भारत में ईसाई अल्पसंख्यकों की जनसंख्या 2.78 करोड़ हैं। भारतीय
ईसाइयों को मुख्य तौर पर दो भागों में बांटा जा सकता हैं– (अ) विभिन्न
देशों से आकर बसने वाले ईसाई और (ब) भारतीय जनता के धर्म परिवर्तन से बने
ईसाई।

अंग्रेजी शासनकाल में ईसाइयों की संख्या कम होने के बाद भी
उन्हें सभी तरह का राजनीतिक संरक्षण मिला मिला हुआ था। फलस्वरूप उन्होंने
कभी-भी अपने आपको अल्पसंख्यक के रूप में नही देखा। 

भारत में ईसाई समाज की संरचनात्मक विशेषताओं को निम्न आधारों पर सरलता से समझा जा सकता है– 

1. सामाजिक संस्तरण 

भारत
में धर्म परिवर्तन से बने ईसाई लोगों की संख्या अधिक है और इनमें से
अधिकांश हिन्दुओं की निम्न जातियों से बने हैं। अपनी रोजी-रोटी के लिए धर्म
परिवर्तन से निम्न जातियों के लोग ईसाई तो बन गये परन्तु वे पूर्ण रूप
ईसाई संस्कृति को आत्मसात नहीं कर सके और इस प्रकार उनमें भारतीयता बनी
रही। 

2. स्त्रियों की स्थिति 

स्त्री को पुरुष की
भाँति अधिकार प्राप्त हैं। धर्मग्रंथ बाइबिल में स्त्रियों को पुरुषों के
समान माना गया हैं। सच तो यह हैं कि ईसाई स्त्री सभी क्षेत्रों में भारत के
अन्य संप्रदायों की स्त्रियों से आगे हैं और उसमें प्रगतिशीलता भी अधिक
हैं, परिवार में स्त्री का स्थान पर्याप्त सम्मानजनक हैं। आर्थिक, धार्मिक
आदि क्षेत्रों में महिलाएं पुरुषों से पीछे नहीं हैं। 

भारत और ईसाई सांप्रदायिकता 

ईसाई
मिशनरियों की नीतियां हिन्दू समुदाय के प्रति अहित कर रही हैं क्योंकि वे
धन के प्रलोभन, धोखाधड़ी आदि के द्वारा अनुचित उपायों से भोली-भाली
जनजातियों तथा हिन्दुओं की निम्न जातियों का धर्म परिवर्तन कर रही हैं।
आर्य समाज एवं हिन्दुओं के अन्य संगठनों ने इस सांप्रदायिक चाल की तरफ
सरकार का ध्यान आकर्षित किया हैं, लोकसभा में भी ऐसे घृणित प्रयासों की
चर्चा हो चुकी हैं।  

भारत में ईसाइयों को समान सुरक्षा व संरक्षण
प्राप्त हैं पर ये लोग धार्मिक स्वतंत्रता का नाजायज लाभ धर्म परिवर्तन के
रूप में उठा रहे हैं। 

नागालैण्ड, मेघालय, मणिपुर और असम में ईसाइयों
की संख्या काफी बढ़ जाने से उन्होंने क्षेत्रीय आधार पर अपने लिए पृथक
अधिकारों की माँग करना शुरू कर दिया। सच तो यह है कि अधिकांश ईसाई शिक्षित
हैं तथा उनका संबंध समाज के मध्यम वर्ग से हैं। इसके बाद भी जो लोग धर्म
परिवर्तन करके ईसाई बने, उन्हें चर्च और सामाजिक जीवन में वे अधिकार नही
सके, जो परम्परागत ईसाइयों को प्राप्त हैं। 

सिख अल्पसंख्यकों की स्थिति अथवा समस्याएं 

जहाँ
तक सिख अल्पसंख्यकों का प्रश्न हैं, वे देश में अल्पसंख्यक हैं, लेकिन
पंजाब में सिखों की जनसंख्या 61 प्रतिशत होने कारण वहाँ उनकी प्रस्थिति
बहुसंख्यक समुदाय की हैं। शिक्षा, राजनीति, उद्योग और सरकारी सेवाओं में
सिखों का अच्छा प्रतिनिधित्व हैं। महत्वपूर्ण बात यह है कि सांस्कृतिक आधार
पर सिख समुदाय अपने आपको हिन्दु समुदाय से भिन्न नहीं मानता। दोनों ही
एक-दूसरे के धर्म और संस्कृति का आदर करते है। इसके बाद भी लगभग 25 वर्ष
पहले सिखों में एक ऐसा वर्ग बनने लगा, जिसने सिखों को हिन्दुओं से बिल्कुल
भिन्न मानते हुए अपने लिए खालिस्तान के रूप में एक अलग राज्य की माँग करना
आरंभ कर दिया। इससे कुछ समय के लिए हिन्दू-सिख एकता खतरे में पड़ती दिखाई
दी, लेकिन जल्द ही सभी लोग यह समझने लगे कि यह पृथकतावादी आंदोलन कुछ
विदेशी ताकतों की राजनीति से प्रेरित हैं। वर्तमान में न तो सिख
मनोवैज्ञानिक रूप से अपने आपको अल्पसंख्यक मानते हैं और न ही अल्पसंख्यक
समुदाय के रूप में उनकी कोई विशेष समस्या हैं।

बौद्ध, जैन तथा पारसी अल्पसंख्यकों की समस्याएं अथवा स्थिति

यदि
हम बौद्ध, जैन पारसी धर्म को मानने वाले अल्पसंख्यकों पर विचार करें, तो
इनकी भी अपनी कोई पृथक समस्याएं नहीं हैं। सभी को अपने धर्म के अनुसार आचरण
करने, शिक्षा प्राप्त करने, राजनीति और आर्थिक व्यवस्था में सहभाग करने
तथा अपनी शिक्षा संस्थाओं का स्वतंत्र रूप से संचालन करने की पूरी
स्वतंत्रता हैं। इस प्रकार, व्यापारिक रूप से अल्पसंख्यकों तथा उनकी
समस्याओं का संबंध मुख्य रूप से मुस्लिम अल्पसंख्यकों तक ही सीमित रह गया
हैं।

अल्पसंख्यकों की समस्याओं के समाधान हेतु सुझाव

अल्पसंख्यकों की समस्याओं के निराकरण के लिए सुझाव निम्नलिखित हैं– 

1.
भारत में द्वितीय प्रधानमंत्री स्वर्गीय श्री लालबहादुर शास्त्री ने
मुस्लिम समुदाय मे सुरक्षा तथा आत्मविश्वास की भावना का विकास करने की
दृष्टि से तथा उनके सामाजिक विकास के लिए सब-इंस्पेक्टर के पद तक नियुक्ति
में उनकी योग्यताओं में छूट देने के लिए मुख्यमंत्रियों को पत्र लिखा था।
इस तरह का संरक्षण यद्यपि वैज्ञानिक और धर्मनिरपेक्षता की दृष्टि से उचित
नहीं हैं फिर भी राष्ट्रीय धारा में जोड़ने के लिए अल्पसंख्यक समुदाय को
कुछ न कुछ छूट देनी ही पड़ेगी क्योंकि मुसलमान सिर्फ राष्ट्रीय अल्पसंख्यक
ही नहीं एक पिछड़ा हुआ समुदाय भी है। 

2. अल्पसंख्यक समूहों की संख्या जिन स्थानों पर अधिक हैं, वहाँ उनके लिए पृथक शिक्षा संस्थाओं की स्थापना होना आवश्यक हैं। 

3.
प्रचार के साधनों द्वारा अल्पसंख्यक समूहों में यह भावना उत्पन्न करना
जरूरी है कि वे सबसे पहले राष्ट्र के अंग हैं और राष्ट्र हित में ही उनके
व्यक्तिगत हित सुरक्षित हैं।

4. हिन्दू-मुस्लिम एवं अन्य
अल्पसंख्यकों की धार्मिक संस्थाओं को पारस्परिक विचार-विनिमय की व्यवस्था
करनी चाहिए। शीर्षस्थ मुस्लिम धार्मिक नेताओं और हिन्दू धर्म के शीर्षस्थ
आचार्यों और विद्वानों को एक साथ बैठकर यदा-कदा धार्मिक समन्वय के तरीकों
की खोज करनी चाहिए और उनका अपने-अपने समुदायों में प्रचार करना चाहिए।
सरकार की राष्ट्रीय एकता समितियाँ धार्मिक समन्वय का काम उतनी सफलता के साथ
नहीं कर सकती। वे राजनीति से प्रारंभ होती हैं तथा राजनीति से काम करती
हैं। दोनों समुदायों के धर्माचार्यों की समितियाँ अधिक सफल सिद्ध हो सकती
हैं। 

5. मुसलमानों, ईसाइयों आदि को यह प्रेरणा दी जानी चाहिए कि वे
देश की गतिविधियों में अधिक से अधिक भाग लें ताकि वे धीरे-धीरे शेष समाजों
के साथ घुल-मिल जायें और उनमें अलगाव की भावना न रहें। 

6.
धर्मनिरपेक्षता और समानता सिर्फ आदर्श और सैद्धांतिक प्रतिस्थापना का विषय
ही नही रह जाएं बल्कि इनका व्यावहारिक प्रयोग आवश्यक हैं। 

7.
मुसलमान अल्पसंख्यकों की मुख्य समस्या अशिक्षा तथा आर्थिक पिछड़ापन है।
अनिवार्य शिक्षा का नियम मुसलमानों पर कठोरता से लागू किया जाना चाहिए। यह
उचित होगा कि यदि कम से कम 10 वीं कक्षा तक सभी मुसलमान को मुफ्त शिक्षा
(पुस्तकें आदि भी) दी जाएं तो इस बात की सतर्कता बरती जाए। वास्तव में
मुसलमानों के साथ अन्य अल्पसंख्यक समूहों की शिक्षा, अर्थव्यवस्था आदि की
ओर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए।

Final Words

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